मैं तेरी मस्त निगाही का भरम रख लूंगा।
होश आया भी तो कह दूंगा, मुजे होश नहीं।
(1) हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है
(2)- ना तजुर्बकारी से, वाइज़ की ये बातें हैं
इस रंग को क्या जाने, पूछो जो कभी पी है
हंगामा हैं क्यों......
(3)- उस मय से नहीं मतलब, दिल जिस से हो बेगाना
मकसूद उस मय से, दिल ही में जो खींचती है
हंगामा है क्यों......
(4)- हर ज़र्रा चमकता है, अनवार-ए-इलाही से
हर सांस ये कहती है, हम हैं तो ख़ुदा भी है
हंगामा है क्यों.....
(5)-सूरज में लगे धब्बा, फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हमको कहें काफ़िर, अल्लाह की मर्ज़ी है
हंगामा है क्यों.....
हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है
गीतकार- अकबर इलाहाबादी
गायक- गुलाम अली, मैहंदी हसन
Transliteration
Main Teri Mast Nigahi Ka Bharam Lakh loonga.
Hosh Aaya Bhai to keh doonga mujhe hosh Nahi.
(1)- Hungama hai kyon barpa, thodi si jo pee li hai
Daaka to nahi daala, chori to nahi ki hai
Hungama hai......
(2)- Na-tajurba-kaari se, waaiz ki ye baatein hain
Is rang ko kya jaane, poochho jo kabhi pee hai
Hungama hai.....
(3)- Us mai se nahi matlab, dil jis se ho begaana
Maqsood hai us mai se, dil hi mein jo kheenchti hai
Hungama hai.....
(4)- Har zarra chamakta hai, anwar-e-ilaahi se
Har saans ye kehti hai, hum hain to Khuda bhi hai
Hungama hai....
(5)- Sooraj mein lage dhabba, fitrat ke karishme hain
But hum ko kahe kaafir, Allah ki marzi hai
Hungama hai...
Hungama hai kyon barpa, thodi si jo pee li hai
Daaka to nahi daala, chori to nahi ki hai
Hungama hai......
ग़ज़ल के लिखित भावअर्थ
ग़ज़ल "हंगामा है क्यों बरपा" अकबर इलाहाबादी द्वारा रचित और गुलाम अली द्वारा गाई हुई एक प्रसिद्ध उर्दू ग़ज़ल है। इसके बोल न केवल साहित्यिक दृष्टिकोण से समृद्ध हैं, बल्कि इनमें गहरी व्यंग्यात्मकता, सामाजिक टिप्पणियाँ भी हैं। यह ग़ज़ल समाज की रूढ़ियों, धार्मिक कट्टरता, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर तंज कसती है, साथ ही आध्यात्मिक और दार्शनिक गहराई भी प्रस्तुत करती है। नीचे इस ग़ज़ल के लिखित भाव और अर्थ को समझाया गया है:
(1)- पहले शेयर में गीतकार ने बताया है कि बस थोड़ी सी शराब पी है, फिर इतना हंगामा क्यों मचा है? मैंने न तो डकैती की, और न ही चोरी। यहाँ शराब को एक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया गया है, जो सामाजिक या धार्मिक रूढ़ियों के खिलाफ व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रतीक हो सकता है। शायर समाज के दोहरे मापदंडों पर सवाल उठाता है, जो छोटी-छोटी बातों पर हंगामा खड़ा करता है, जबकि बड़े अपराधों को नजरअंदाज कर देता है।
(2)- गीतकार कहता है कि जो धर्मोपदेशक (वाइज़) शराब पीने की निंदा करते हैं, उनकी बातें अनुभवहीनता (ना-तजरबा-कारी) पर आधारित हैं। वे इस "रंग" भाव कि जीवन के आनंद, स्वतंत्रता, या आध्यात्मिक नशे को क्या समझेंगे, क्योंकि उन्होंने कभी इसे अनुभव ही नहीं किया। यहाँ गीतकार धार्मिक कट्टरता और अनुभव के अभाव में दी गई सलाह पर टिप्पणी है।
(3)- गीतकार स्पष्ट करता है कि उसका इरादा उस शराब से नहीं है जो केवल नशा देती है और दिल को बेगाना कर देती है। उसका मकसद (मक़सूद) वह "मय" (शराब) है, जो दिल में एक आध्यात्मिक या भावनात्मक जुड़ाव पैदा करती है। यहाँ "मय" को प्रेम, आध्यात्मिक नशा, या ईश्वर के प्रति भक्ति के रूपक के रूप में देखा जा सकता है।
(4)- गीतकार दार्शनिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से कहता है कि हर कण (ज़र्रा) ईश्वर की रौशनी (अनवार-ए-इलाही) से चमकता है। हर सांस यह बताती है कि हमारी मौजूदगी ही ईश्वर की मौजूदगी का प्रमाण है। यहाँ मानव और ईश्वर के बीच गहरा संबंध स्थापित किया गया है, जो यह संदेश देता है कि मानव का अस्तित्व ही ईश्वर का प्रमाण है।
(5)- गीतकार कहता है कि अगर सूरज में भी धब्बे हैं, तो यह प्रकृति का करिश्मा है। फिर भी, मूर्तिपूजक हमें काफिर कहते हैं, लेकिन यह सब अल्लाह की मर्जी है। यहाँ लेखक धार्मिक कट्टरता और दूसरों को गलत ठहराने की प्रवृत्ति पर दृढ़ता रखता है।
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